पुरुष और महिलाएं भले ही हमराही हो गए हों, लेकिन दोनों का मूल स्वभाव आज भी अलग-अलग है। हर काम करने का दोनों का अंदाज़ एक-दूसरे से बिल्कुल जुदा होता है। पुरुषों को स्वभाव से आक्रामक, प्रतियोगिता में विश्वास रखने वाला और अपनी बातों को छिपाने में माहिर माना जाता है। दोस्तों से बातचीत में पुरुष अपने सारे राज़ भले ही खोल दें, लेकिन किसी अजनबी से गुफ्तगू में पूरी सावधानी बरतते हैं। कारण, उनकी किसी बात से विरोधी फायदा न उठा सकें। पुरुष आमतौर पर अपने कामकाज़ में किसी तरह की दखलंदाज़ी बर्दाश्त नहीं करते।
आपको यह जानकर हैरत होगी कि बड़े से बड़ा नुकसान होने और बहुत ज़्यादा खुशी दोनों ही हालत में पुरुष सेक्स की ज़रूरत शिद्दत से महसूस करते हैं। वे इसे तनाव से मुक्ति पाने वाला भी मानते हैं। वहीं, महिलाएं पुरुष-मित्र या पति से झगड़ा होने पर चाहती हैं कि उनकी बात को पूरी तरह सुना जाए, लेकिन अगर कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका से झगड़े के बाद उसे अपनी मज़बूत बांहों का सहारा देता है और दिल से उससे माफी मांग लेता है, तो महिलाएं सब कुछ तुरंत भूल जाती हैं। महिलाएं तारीखों का काफी हिसाब-किताब रखती हैं। उन्हें अपने जीवनसाथी या पुरुष-मित्र के साथ-साथ दोस्तों, परिचितों और पारिवारिक सदस्यों के जन्मदिन और सालगिरह की तारीखें याद रहती हैं, जबकि पुरुष कभी-कभी अपनी महिला-मित्र या पत्नी का भी जन्मदिन भूल जाते हैं।
महिलायें एक समय पर कई काम कर सकती हैं। वे फोन पर बात करते-करते टीवी देख सकती हैं। डिनर तैयार करते समय बच्चों की निगरानी कर सकती हैं, लेकिन पुरुष एक समय में एक ही काम करने में विश्वास रखते हैं।
पुरुषों के मुकाबले महिलाएं संकेत पहचानने में ज़्यादा माहिर होती हैं, लेकिन वे दिल के मामले में अपनी बात किसी पर जल्दी ज़ाहिर नहीं करतीं। महिलाएं अपने साथी की आंखों, बातों और उसके चेहरे के हाव-भाव से उसकी चाहत का अंदाज़ा बखूबी लगा लेती हैं, लेकिन किसी से कुछ कहतीं नहीं। जबकि पुरुष 'वो मुझे चाहती है, वो मुझे नहीं चाहती' की भूलभुलैया में भटकते रहते हैं।
पुरुष किसी भी चीज़ की ज़रूरत होने पर बड़ी आसानी से उसकी मांग कर देते हैं, पर महिलाएं अपनी पसंद की चीज़ की तरफ पहले केवल इशारा ही करती हैं। इसे न समझने पर वह अपनी मांग शब्दों से ज़ाहिर करती हैं। महिलाएं आमतौर पर अपने बच्चों की तमाम ज़रूरतों के प्रति सजग रहती हैं। उनकी पढ़ाई, अच्छे दोस्तों, प्रिय खाद्य पदार्थ , उनकी आशाओं और सपनों से वे पूरी तरह वाकिफ होती हैं, जबकि पुरुषों का ज़्यादातर समय बाहर बीतता है, इसलिए वे अपने बच्चों को उतनी अच्छी तरह नहीं जान पाते।
महिलाएं टीवी देखते समय एक ही चैनल पर ज़्यादा समय तक टिक सकती हैं। किस चैनल पर उनका पसंदीदा प्रोग्राम कब आएगा, यह उन्हें अच्छी तरह पता होता है, वहीं पुरुष एक समय में छह या सात चैनल देखते हैं, लेकिन उन्हें यह नहीं पता होता कि कुछ समय पहले वे किस चैनल पर कौन-सा कार्यक्रम देख रहे थे! महिलाओं को सोने के लिए पूरी शांति की ज़रूरत होती है। हो सकता है कि एक बल्ब जलता रहने पर वह चैन से न सो पाएं, जबकि पुरुष शोर में भी 'घोड़े बेचकर' सो सकते हैं। चाहे कुत्ते भौंक रहे हों, तेज़ आवाज़ में गाना बज रहा हो या बच्चे ऊधम मचा रहे हों, अगर उन्हें सोना है, तो फिर कोई भी चीज़ उनके लिए कोई मायने नहीं रखती।
(हैलो दिल्ली, नवभारत टाइम्स से साभार)
गूगल की मदद
Saturday, 30 August 2008
Monday, 25 August 2008
मैंने किसी की माँ की... किसी की पत्नी की... नहीं की है।
पिछले दिनों एक ब्लॉगर साथी की अच्छी, सामयिक, सुलझी हुयी पोस्ट उनकी सुपुत्री के सौजन्य से पढ़ने को मिली। दैनंदिन व्यस्ततायों के चलते हर पोस्ट पर दो-चार शब्दों से अधिक वाली टिप्पणी कर पाना सम्भव नहीं होता। लेकिन इस कन्या भ्रूण ह्त्या और दहेज़ जैसी सामाजिक बुराई की ओर इशारा करती पोस्ट पर कतिपय नारी समर्थक सामूहिक ब्लॉग की ओर इशारा करने के साथ-साथ मैंने एक विचार भी रख दिया। हालांकि उसके पहले भी सच की टिप्पणी कुछ इसी तरह की थी
मेरी दी गयी टिप्पणी में बस इतना ही कौतूहल था कि ... कोई जानी-पहचानी प्रतिक्रिया क्यों नहीं आयी! मेरा इतना लिखना भर ही काफी साबित हुया बवाल मचाने के लिए।
पढ़ने वालों को, बिना शब्दों पर ध्यान दिए, ऐसा लगा मानो मैंने आधी सृष्टि को चुनौती दे दी हो कि कोई प्रतिक्रिया क्यों नहीं आयी। फिर क्या था, आंकड़े प्रस्तुत किए गए, द्विवेदी जी को 'प्रेरित' किया गया कि वे पतिनुमा प्राणी को बता दें ... अपशब्दों का प्रयोग करना बंद करें
मैं हैरत में पड़ गया! अपशब्द !? ये अपशब्द मैंने कहाँ लिख दिए? ज्ञात होते हुए भी, जिन शब्दों का मौखिक-लिखित-मानसिक-वैचारिक उपयोग कभी नहीं किया, उनके प्रयोग का आरोप! इन माननीया को यदि कभी, वास्तविकता में अपशब्दों का सामना करना पड़ा जाए तो क्या करेंगीं? हालांकि इनका दावा इनके कमेन्ट फॉर्म पर है कि इसी बात को इंगित करते हुए मेरी दूसरी टिप्पणी इस निवेदन के साथ गयी कि द्विवेदी जी के ब्लॉग पर, इन औचित्यहीन बातों पर तो कोई तुक नहीं। उनसे क्षमा चाहता हूँ। ... अनुरोध है कि वे अपने या मेरे ब्लॉग पर ही अपनी बात रखें।
द्विवेदी जी ने पता नहीं क्या सोचकर उन टिप्पणियों को 'उड़ा' दिया। फिर पता नहीं किन परिस्थितियों में, मूल आलेख से ध्यान हटाते हुए 'उन' टिप्पणियों पर आधारित एक पोस्ट ही लिख मारी। जिसमें एक तरह से सफाई पेश की
और मेरा परिचय कराते हुए उन्होंने मेरी माँ, बच्चों , पत्नी, यहाँ तक कि भगवान को भी लपेट लिया! माता जी से नाराज ...कि जन्म ही क्यों दिया? ...अठारवीं शताब्दी में नम्बर लगाया था, पैदा किया बीसवीं के उत्तरार्ध में... ...जरूरत थी एक संतान की, पैदा हो गईं दो... ...एक पाप कर डाला, ब्याह कर लिया। ...पैदा करने में भगवान जी ने जो देरी की, उस के नतीजे में पाला पड़ा ऐसी पत्नी से जो आकांक्षा रखती है। ...कुछ कहें तो बराबर की बजातीं है।
मैं तो दंग रह गया! सोचने लगा कि क्या अपशब्दों के लिए अंग-विशेष से जुड़े किन्हीं खास शब्दों की जरूरत होती है। उनकी पोस्ट ख़त्म होते-होते लगा कि वे अपने लिए ही कह रहें हों कि भड़ास निकालने वाले को रोकने पर उसे कितनी परेशानी होती है? सोच भी नहीं सकते। सोचने की जरूरत भी नहीं। मैंने सोचना बंद कर लिखना शरू कर दिया।
इसी बीच द्विवेदी जी की पोस्ट पर अनुराग जी की टिप्पणी आयी क्या आपसे वैचारिक असहमति रखना ही नारी विरोधी होना है? जब आप वहां वैचारिक असहमति जताते है तो बहस मुड जाती है ,अपने मुद्दे से भटक जाती है ... हर मुद्दे को स्त्री ओर पुरूष के चश्मे से नही देखना चाहिए ... तो द्विवेदी जी का जवाब गया ...विमर्श में कोई बुरका पहन कर नहीं आता। जब मैंने सच का ब्लॉग देखना चाहा तो पाया कि वहाँ तो बुर्के की आवश्यकता भी नहीं है।
सच ने फिर एक प्रश्न उछाला: मैंने तो बस इतना पूछा था कि पुरवा के ...लेख पर सब ने एक सुर से सही का निशाँ लगाया क्योकि उसके पिता के ब्लॉग पर ये लेख था। अन्य ब्लॉग पर अगर स्त्री विमर्श होता हैं तो गालियाँ और अपशब्दों की टिप्पणी होती हैं। ये भेद भाव क्यों ??
और उसके बाद आने वाली टिप्पणियाँ कैसी आयीं देखिये
अरविन्द मिश्रा - अब यह विमर्श डेंजर ज़ोन में जा रहा है ...फूट लेना ही बेहतर !
उड़न तश्तरी - बड़ी पेंच है भाई -चलते हैं!!
सिद्दार्थ शंकर त्रिपाठी- पढ़ो और फूट लो भाई... माहौल गर्म है।
ज्ञानदत्त पाण्डेय- यहां बोलना खतरे जान है! :-)
इन सबके बीच जब सच ने मुझे संबोधित कर लिखा कि आप को दिवेदी जी की बेटी की पोस्ट पर आप को कोई ओब्जेक्शन नहीं हुआ। तो तरस भी आया कि उसमें ऐसा क्या था जिस पर पर मैं आपत्ति उठाता? वैसे वैचारिक मतभेद के रूप में अपने विचार तो रख ही दिए थे कि ... आलेख में मूल तौर पर दहेज को कारक माना गया है। लेकिन उन परिवारों में, जहाँ दहेज कोई मायने नहीं रखता, वहाँ भी तो यही हाल है।
जब प्रेमचंद जी का उद्धरण दिया गया कि पुरूष, स्त्री के गुण अपना ले तो देवता बन जाता है और स्त्री, पुरूषों के गुण अपना ले तो कुलटा कहलाती है। तो अफसोस फिर हुया कि हमारे साथी शब्दों पर ध्यान क्यों नहीं देते!
कुलटा बनने/होने और कहलाने में बहुत फर्क है।
इस पोस्ट को लिखते-लिखते द्विवेदी जी की नयी पोस्ट पर नज़र पडी। लगा, कुछ नया पढ़ने को मिलेगा, लेकिन फिर वही राग। समझ में नहीं आया तिलमिला कौन रहा है? जब उनका भी यही सोचना है कि महिलाएँ संऱक्षण के बावजूद भी अपशब्द का शिकार होंगी, तो विलाप किस बात का? जब उन जैसा व्यक्ति भी मेरी सामान्य सी भाषा को, रस्सी को पत्थर पर रगड़-रगड़ कर, अपशब्द ठहराने पर तुला हुया हो तो कुछ कहना ही बेमानी है। हाँ, वे आत्मस्वीकृतिनुमा भाषा का प्रयोग करते हुए कहतें है ...जब वे (महिलायें) हासिल कर चुकी होती हैं, तो अन्य को भी प्रेरित करती हैं। कानून और प्रत्यक्ष ऱूप से पुरुषों को भी उन का साथ देना होता है।
इसी बीच पति-पत्नी ब्लॉग पर बांयीं और के मैसेज बॉक्स में किन्हीं संजय द्विवेदी जी का प्रश्न दिखा 'आपकी बीबी ने अभी तक यह ब्लॉग पढ़ा नही है क्या ?' तो लगा कि एक खौफज़दा पर, बीबी का हौव्वा इतना भारी है कि दूसरों को भी धमका रहे हैं!
इन सभी औचित्यहीन बातों के बाद भी, मुझे अभी भी उम्मीद है कि उनके प्रेरणा स्त्रोत ओर वे, मेरी पहली टिप्पणी पर समय देंगें ओर स्वस्थ विचार-विमर्श के लिए रास्ता खुला रखेंगें। टिप्पणियों को ऐसे ही लें जैसे गुलाब के साथ कांटे, न कि काँटों पर ध्यान देते-देते गुलाब का आनंद खो दें। जिस आलेख पर टिप्पणी के कारण इस पोस्ट के लिखे जाने की नौबत आयी है, नि:संदेह एक अच्छा प्रयास है, आंकडों और तथ्यों की रोशनी में। अच्छे प्रयासों की तारीफ होनी ही चाहिए, लेकिन 'प्रेरित' द्विवेदी जी द्वारा व्यक्तिगत प्रहार किए जाने से पूरा आनन्द ही जाता रहा। मुझे अंदेशा है कि वे मुझे जानते हैं। यदि नहीं तो, कोशिश करूंगा, उन्हें मेरा वास्तविक परिचय न मिल पाये।
संतुलित लेखन के बावजूद, यदि किसी को लगता है कि ये 'हिट बेलो द बेल्ट' है तो ध्यान दें कि अधिकतर शब्द मेरे नहीं हैं, आप ही के हैं! मैंने किसी की माँ की... किसी की बेटी की... किसी के परिवार की... किसी की पत्नी की... किसी के भगवान की कोई बात नहीं की है।
मेरी दी गयी टिप्पणी में बस इतना ही कौतूहल था कि ... कोई जानी-पहचानी प्रतिक्रिया क्यों नहीं आयी! मेरा इतना लिखना भर ही काफी साबित हुया बवाल मचाने के लिए।
पढ़ने वालों को, बिना शब्दों पर ध्यान दिए, ऐसा लगा मानो मैंने आधी सृष्टि को चुनौती दे दी हो कि कोई प्रतिक्रिया क्यों नहीं आयी। फिर क्या था, आंकड़े प्रस्तुत किए गए, द्विवेदी जी को 'प्रेरित' किया गया कि वे पतिनुमा प्राणी को बता दें ... अपशब्दों का प्रयोग करना बंद करें
मैं हैरत में पड़ गया! अपशब्द !? ये अपशब्द मैंने कहाँ लिख दिए? ज्ञात होते हुए भी, जिन शब्दों का मौखिक-लिखित-मानसिक-वैचारिक उपयोग कभी नहीं किया, उनके प्रयोग का आरोप! इन माननीया को यदि कभी, वास्तविकता में अपशब्दों का सामना करना पड़ा जाए तो क्या करेंगीं? हालांकि इनका दावा इनके कमेन्ट फॉर्म पर है कि इसी बात को इंगित करते हुए मेरी दूसरी टिप्पणी इस निवेदन के साथ गयी कि द्विवेदी जी के ब्लॉग पर, इन औचित्यहीन बातों पर तो कोई तुक नहीं। उनसे क्षमा चाहता हूँ। ... अनुरोध है कि वे अपने या मेरे ब्लॉग पर ही अपनी बात रखें।
द्विवेदी जी ने पता नहीं क्या सोचकर उन टिप्पणियों को 'उड़ा' दिया। फिर पता नहीं किन परिस्थितियों में, मूल आलेख से ध्यान हटाते हुए 'उन' टिप्पणियों पर आधारित एक पोस्ट ही लिख मारी। जिसमें एक तरह से सफाई पेश की
और मेरा परिचय कराते हुए उन्होंने मेरी माँ, बच्चों , पत्नी, यहाँ तक कि भगवान को भी लपेट लिया! माता जी से नाराज ...कि जन्म ही क्यों दिया? ...अठारवीं शताब्दी में नम्बर लगाया था, पैदा किया बीसवीं के उत्तरार्ध में... ...जरूरत थी एक संतान की, पैदा हो गईं दो... ...एक पाप कर डाला, ब्याह कर लिया। ...पैदा करने में भगवान जी ने जो देरी की, उस के नतीजे में पाला पड़ा ऐसी पत्नी से जो आकांक्षा रखती है। ...कुछ कहें तो बराबर की बजातीं है।
मैं तो दंग रह गया! सोचने लगा कि क्या अपशब्दों के लिए अंग-विशेष से जुड़े किन्हीं खास शब्दों की जरूरत होती है। उनकी पोस्ट ख़त्म होते-होते लगा कि वे अपने लिए ही कह रहें हों कि भड़ास निकालने वाले को रोकने पर उसे कितनी परेशानी होती है? सोच भी नहीं सकते। सोचने की जरूरत भी नहीं। मैंने सोचना बंद कर लिखना शरू कर दिया।
इसी बीच द्विवेदी जी की पोस्ट पर अनुराग जी की टिप्पणी आयी क्या आपसे वैचारिक असहमति रखना ही नारी विरोधी होना है? जब आप वहां वैचारिक असहमति जताते है तो बहस मुड जाती है ,अपने मुद्दे से भटक जाती है ... हर मुद्दे को स्त्री ओर पुरूष के चश्मे से नही देखना चाहिए ... तो द्विवेदी जी का जवाब गया ...विमर्श में कोई बुरका पहन कर नहीं आता। जब मैंने सच का ब्लॉग देखना चाहा तो पाया कि वहाँ तो बुर्के की आवश्यकता भी नहीं है।
सच ने फिर एक प्रश्न उछाला: मैंने तो बस इतना पूछा था कि पुरवा के ...लेख पर सब ने एक सुर से सही का निशाँ लगाया क्योकि उसके पिता के ब्लॉग पर ये लेख था। अन्य ब्लॉग पर अगर स्त्री विमर्श होता हैं तो गालियाँ और अपशब्दों की टिप्पणी होती हैं। ये भेद भाव क्यों ??
और उसके बाद आने वाली टिप्पणियाँ कैसी आयीं देखिये
अरविन्द मिश्रा - अब यह विमर्श डेंजर ज़ोन में जा रहा है ...फूट लेना ही बेहतर !
उड़न तश्तरी - बड़ी पेंच है भाई -चलते हैं!!
सिद्दार्थ शंकर त्रिपाठी- पढ़ो और फूट लो भाई... माहौल गर्म है।
ज्ञानदत्त पाण्डेय- यहां बोलना खतरे जान है! :-)
इन सबके बीच जब सच ने मुझे संबोधित कर लिखा कि आप को दिवेदी जी की बेटी की पोस्ट पर आप को कोई ओब्जेक्शन नहीं हुआ। तो तरस भी आया कि उसमें ऐसा क्या था जिस पर पर मैं आपत्ति उठाता? वैसे वैचारिक मतभेद के रूप में अपने विचार तो रख ही दिए थे कि ... आलेख में मूल तौर पर दहेज को कारक माना गया है। लेकिन उन परिवारों में, जहाँ दहेज कोई मायने नहीं रखता, वहाँ भी तो यही हाल है।
जब प्रेमचंद जी का उद्धरण दिया गया कि पुरूष, स्त्री के गुण अपना ले तो देवता बन जाता है और स्त्री, पुरूषों के गुण अपना ले तो कुलटा कहलाती है। तो अफसोस फिर हुया कि हमारे साथी शब्दों पर ध्यान क्यों नहीं देते!
कुलटा बनने/होने और कहलाने में बहुत फर्क है।
इस पोस्ट को लिखते-लिखते द्विवेदी जी की नयी पोस्ट पर नज़र पडी। लगा, कुछ नया पढ़ने को मिलेगा, लेकिन फिर वही राग। समझ में नहीं आया तिलमिला कौन रहा है? जब उनका भी यही सोचना है कि महिलाएँ संऱक्षण के बावजूद भी अपशब्द का शिकार होंगी, तो विलाप किस बात का? जब उन जैसा व्यक्ति भी मेरी सामान्य सी भाषा को, रस्सी को पत्थर पर रगड़-रगड़ कर, अपशब्द ठहराने पर तुला हुया हो तो कुछ कहना ही बेमानी है। हाँ, वे आत्मस्वीकृतिनुमा भाषा का प्रयोग करते हुए कहतें है ...जब वे (महिलायें) हासिल कर चुकी होती हैं, तो अन्य को भी प्रेरित करती हैं। कानून और प्रत्यक्ष ऱूप से पुरुषों को भी उन का साथ देना होता है।
इसी बीच पति-पत्नी ब्लॉग पर बांयीं और के मैसेज बॉक्स में किन्हीं संजय द्विवेदी जी का प्रश्न दिखा 'आपकी बीबी ने अभी तक यह ब्लॉग पढ़ा नही है क्या ?' तो लगा कि एक खौफज़दा पर, बीबी का हौव्वा इतना भारी है कि दूसरों को भी धमका रहे हैं!
इन सभी औचित्यहीन बातों के बाद भी, मुझे अभी भी उम्मीद है कि उनके प्रेरणा स्त्रोत ओर वे, मेरी पहली टिप्पणी पर समय देंगें ओर स्वस्थ विचार-विमर्श के लिए रास्ता खुला रखेंगें। टिप्पणियों को ऐसे ही लें जैसे गुलाब के साथ कांटे, न कि काँटों पर ध्यान देते-देते गुलाब का आनंद खो दें। जिस आलेख पर टिप्पणी के कारण इस पोस्ट के लिखे जाने की नौबत आयी है, नि:संदेह एक अच्छा प्रयास है, आंकडों और तथ्यों की रोशनी में। अच्छे प्रयासों की तारीफ होनी ही चाहिए, लेकिन 'प्रेरित' द्विवेदी जी द्वारा व्यक्तिगत प्रहार किए जाने से पूरा आनन्द ही जाता रहा। मुझे अंदेशा है कि वे मुझे जानते हैं। यदि नहीं तो, कोशिश करूंगा, उन्हें मेरा वास्तविक परिचय न मिल पाये।
संतुलित लेखन के बावजूद, यदि किसी को लगता है कि ये 'हिट बेलो द बेल्ट' है तो ध्यान दें कि अधिकतर शब्द मेरे नहीं हैं, आप ही के हैं! मैंने किसी की माँ की... किसी की बेटी की... किसी के परिवार की... किसी की पत्नी की... किसी के भगवान की कोई बात नहीं की है।
Saturday, 23 August 2008
86 बीवियों के शौहर के खिलाफ मौत का फतवा
नाईजीरिया में 86 बीवियों के शौहर मोहम्मद बेलो अबूबकर के खिलाफ इस्लामिक कानून के तहत फतवा जारी कर तीन दिन के भीतर सिर्फ चार बीवियां रखने और बाकी सबको तलाक देने या फिर खुद मौत की सजा भुगतने को तैयार रहने का फरमान सुनाया है। स्थानीय मीडिया के मुताबिक नाईजर प्रांत के निवासी 84 साल के अबूबकर की 86 बीवियां और 170 बच्चे होने की खबर आने के बाद यह भारी भरकम कुनबा सुर्खियों में आ गया। इसके महज दो सप्ताह बाद ही जमात नसरिल इस्लाम की ओर से शरियत कानून का हवाला देते हुये यह सजा सुनाई है।
हालांकि अबूबकर ने भी कुरान का हवाला देते हुये इस फरमान को चुनौती दे दी है। उनकी दलील है कि कुरान में चार से अधिक बीवियां रखने पर सजा का कोई प्रावधान नहीं है। इसके अलावा अबूबकर ने खुदा से मिली उस क्षमता का भी हवाला देते हुये स्वयं को निर्दोष बताने की कोशिश की जिसके बूते वह एकसाथ 86 बीवियों को संभालने और खुश रखने के काम को बखूबी अंजाम दे रहे हैं। हालांकि उन्होंने लोगों को नसीहत दी है कि उनके इस काम का कोई अनुसरण न करे क्योंकि यह बडा ही कठिन काम है।
हालांकि अबूबकर ने भी कुरान का हवाला देते हुये इस फरमान को चुनौती दे दी है। उनकी दलील है कि कुरान में चार से अधिक बीवियां रखने पर सजा का कोई प्रावधान नहीं है। इसके अलावा अबूबकर ने खुदा से मिली उस क्षमता का भी हवाला देते हुये स्वयं को निर्दोष बताने की कोशिश की जिसके बूते वह एकसाथ 86 बीवियों को संभालने और खुश रखने के काम को बखूबी अंजाम दे रहे हैं। हालांकि उन्होंने लोगों को नसीहत दी है कि उनके इस काम का कोई अनुसरण न करे क्योंकि यह बडा ही कठिन काम है।
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Thursday, 21 August 2008
पुरूषों की लंबी उम्र के लिए बेहतर है एक से ज्यादा बीवियां!
अभी अभी एक ब्लॉगर साथी ने अपनी पोस्ट में ऐलान किया है कि ब्याह करना पाप है! लेकिन एक हालिया शोध का निष्कर्ष है कि एक से ज्यादा पत्नियां रखने वाले पुरुष लंबी उम्र पाते हैं। प्रमुख शोधकर्ता विरपी लुम्मा के मुताबिक एकपत्नी प्रथा पर अमल करने वाले 49 देशों के पुरुषों की तुलना में बहुपत्नी प्रथा वाले 140 देशों में 60 साल से ज्यादा उम्र के पुरुष 12 फीसदी ज्यादा जीते हैं। लंबे अरसे से वैज्ञानिक मानव जीवविज्ञान की इस गुत्थी को सुलझाने की कोशिश कर रहे थे कि पुरुष लंबी उम्र तक क्यों जीते हैं? बहुपत्नी प्रथा इस प्रश्न को सुलझाने में अहम साबित हुई है।
शोधकर्ताओं के मुताबिक महिलाओं की लंबी उम्र का राज उनकी रजोनिवृत्ति में छुपा होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो मासिक धर्म खत्म हो जाने के बाद महिलाएं ज्यादा जीती हैं। रजोनिवृत्त महिलाओं की लंबी उम्र को लुम्मा 'दादी मां प्रभाव' बताती हैं। वह कहती हैं कि रजोनिवृत्ति के बाद कोई महिला दस साल जीती है तो उसे दो अतिरिक्त पोते-पोतियों को प्यार-दुलार करने का मौका मिलता है। शोध में महिलाओं की लंबी उम्र के पीछे पोते-पोतियों को दुलार करना तथा उनके नाज-नखरे सहने को एक बड़ा कारण बताया गया है। लेकिन पुरुषों का जीव विज्ञान महिलाओं से भिन्न होता है। वे 80 साल के बाद भी यौन क्रिया में हिस्सा ले सकते हैं। ज्यादातर अनुसंधानकर्ता इसी बात को मर्दो की लंबी जिंदगी का राज बताते हैं।
वैज्ञानिकों ने दादी मां प्रभाव की तरह पुरुषों में 'दादा प्रभाव' का अध्ययन किया। इसके लिए उन्होंने 18वीं और 19वीं सदी के 25,000 फिनलैंडवासियोंके रिकार्ड खंगाले। इनमें से ज्यादातर लोग अपेक्षाकृत कम दिन जीवित पाए गए। यह वह दौर था जब लोग स्थान परिवर्तन कम करने के साथ परिवार नियोजन के तरीके भी नहीं अपनाते थे। चर्च की तरफ से एकपत्नी प्रथा कठोरता से लागू थी। पत्नी की मृत्यु के बाद ही पुरुष दूसरी शादी कर सकते थे।
शोधकर्ताओं के मुताबिक महिलाओं की लंबी उम्र का राज उनकी रजोनिवृत्ति में छुपा होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो मासिक धर्म खत्म हो जाने के बाद महिलाएं ज्यादा जीती हैं। रजोनिवृत्त महिलाओं की लंबी उम्र को लुम्मा 'दादी मां प्रभाव' बताती हैं। वह कहती हैं कि रजोनिवृत्ति के बाद कोई महिला दस साल जीती है तो उसे दो अतिरिक्त पोते-पोतियों को प्यार-दुलार करने का मौका मिलता है। शोध में महिलाओं की लंबी उम्र के पीछे पोते-पोतियों को दुलार करना तथा उनके नाज-नखरे सहने को एक बड़ा कारण बताया गया है। लेकिन पुरुषों का जीव विज्ञान महिलाओं से भिन्न होता है। वे 80 साल के बाद भी यौन क्रिया में हिस्सा ले सकते हैं। ज्यादातर अनुसंधानकर्ता इसी बात को मर्दो की लंबी जिंदगी का राज बताते हैं।
वैज्ञानिकों ने दादी मां प्रभाव की तरह पुरुषों में 'दादा प्रभाव' का अध्ययन किया। इसके लिए उन्होंने 18वीं और 19वीं सदी के 25,000 फिनलैंडवासियोंके रिकार्ड खंगाले। इनमें से ज्यादातर लोग अपेक्षाकृत कम दिन जीवित पाए गए। यह वह दौर था जब लोग स्थान परिवर्तन कम करने के साथ परिवार नियोजन के तरीके भी नहीं अपनाते थे। चर्च की तरफ से एकपत्नी प्रथा कठोरता से लागू थी। पत्नी की मृत्यु के बाद ही पुरुष दूसरी शादी कर सकते थे।
Sunday, 10 August 2008
बच्चे 170, बीवियां 86, उम्र 84 और इस करनी को न अपनाने की सलाह
नाइजीरिया के मोहम्मद बेल्लो अबूबकर की उम्र 84 वर्ष है और उनकी 86 बीवियां हैं, लेकिन वे अन्य पुरूषों को सलाह देते हैं कि उनकी इस करनी को उदाहरण मानकर न अपनाएं। अपनी 86 बीवियों और कम से कम 170 बच्चों के साथ नाइजीरिया में रहने वाले अबूबकर कहते हैं कि खुदा का ही शुक्र है कि वे इतनी बीवियों के साथ सहज रह पाते हैं। उन्होंने बताया, एक पुरूष की अगर 10 बीवियां हो तो उसका जीना बेहाल हो जाएगा, लेकिन अल्लाह ने मुझे शक्ति दी हैं जिस कारण मैं 86 बीवियों को संभाल रहा हूं।
पूर्व में शिक्षक और इस्लाम के प्रचारक रह चुके अबूबकर कहते हैं कि उनकी बीवियों ने बीमारियों से निजात दिलाने की उनकी शोहरत के कारण ही उन्हें चुना है। वे कहते हैं, ‘मैं बीवियों की खोज में नहीं जाता बल्कि वे ही मेरे पास आती है’ लेकिन नाइजीरियो के इस्लामी अधिकारियों ने अबूबकर के इस दावे को नहीं मानते हुए उनके परिवार को एक ‘पंथ’ करार दिया है। इस्लाम के ज्यादातर विद्वानों का मानना है कि यदि एक व्यक्ति अपनी बीवियों को समान रूप से आदर और सम्मान दे सकने के काबिल है तो वह चार औरतों से शादी कर सकता है। लेकिन अबूबकर कहते हैं कि चार से अधिक शादियां करने पर कुरान में किसी प्रकार के दंड की बात नहीं की गई है जैसे ही अबूबकर अपने घर से बाहर आए उनकी बीवियां और बच्चे उनका गुणगान करने लगे उनकी ज्यादातर बीवियों की उम्र 25 वर्ष से भी कम है उनकी बीवियों ने बताया कि विभिन्न बीमारियों से छुटकारा पाने के लिए वे अबूबकर के पास सहायता लेने के लिए गई और उनकी बीमारियां ठीक हो गई, इसी दौरान अबूबकर से उनकी मुलकात हुई।
शरीफत बेल्लो अबूबकर ने बताया जैसे ही मैं उनसे मिली मेरे सिर का दर्द जाता रहा अल्लाह ने मुझे बताया कि उनसे शादी करने का समय आ गया है अल्लाह का शुक्र है कि मैं अब उनकी बीवी हूं। शादी के वक्त शरीफत बेल्लो की उम्र 25 वर्ष थी और अबूबकर और उनकी बीवियां कोई काम नहीं करती है। इतने बड़े परिवार के गुजारे के लिए प्रत्यक्षत उनके पास कोई साधन भी नहीं दिखता हर भोजन के समय उनके यहां 12-12 किलो के तीन बर्तन भर कर चावल इस्तेमाल होते हैं और हर दिन के खाने का खर्च 915 डॉलर या 457 पाउंड का खर्च आता है। वे यह बताने से इंकार करते हैं कि कैसे वे अपने परिवार के लिए खाने और पहनने की व्यवस्था करते हैं। वे कहते है सब अल्लाह का फजल है उनकी एक बीवी का कहना है कि अबूबकर कभी-कभी अपने बच्चों को भीख मांग कर लाने के लिए कहते हैं।
अबूबकर अपने परिवार के सदस्यों और अन्य श्रद्धालुओं को दवा का सेवन नहीं करने देते हैं वे कहते हैं आप मेरे साथ बठते हैं और यदि आपको कोई बीमारी है तो मुझे इसका पता चल जाता है और मैं इसे दूर कर देता हूं। लेकिन सभी लोगों का रोग दूर नहीं होता उनकी एक बीवी हफसत बेल्लो मोहम्मद कहती हैं कि उनके दो बच्चों की मौत हो गई थी लेकिन साथ ही उनका यह भी कहना है कि अल्लाह ने कहा कि उन बच्चों के जाने का वक्त आ गया है।
मूल समाचार यहाँ मौजूद है।
पूर्व में शिक्षक और इस्लाम के प्रचारक रह चुके अबूबकर कहते हैं कि उनकी बीवियों ने बीमारियों से निजात दिलाने की उनकी शोहरत के कारण ही उन्हें चुना है। वे कहते हैं, ‘मैं बीवियों की खोज में नहीं जाता बल्कि वे ही मेरे पास आती है’ लेकिन नाइजीरियो के इस्लामी अधिकारियों ने अबूबकर के इस दावे को नहीं मानते हुए उनके परिवार को एक ‘पंथ’ करार दिया है। इस्लाम के ज्यादातर विद्वानों का मानना है कि यदि एक व्यक्ति अपनी बीवियों को समान रूप से आदर और सम्मान दे सकने के काबिल है तो वह चार औरतों से शादी कर सकता है। लेकिन अबूबकर कहते हैं कि चार से अधिक शादियां करने पर कुरान में किसी प्रकार के दंड की बात नहीं की गई है जैसे ही अबूबकर अपने घर से बाहर आए उनकी बीवियां और बच्चे उनका गुणगान करने लगे उनकी ज्यादातर बीवियों की उम्र 25 वर्ष से भी कम है उनकी बीवियों ने बताया कि विभिन्न बीमारियों से छुटकारा पाने के लिए वे अबूबकर के पास सहायता लेने के लिए गई और उनकी बीमारियां ठीक हो गई, इसी दौरान अबूबकर से उनकी मुलकात हुई।
शरीफत बेल्लो अबूबकर ने बताया जैसे ही मैं उनसे मिली मेरे सिर का दर्द जाता रहा अल्लाह ने मुझे बताया कि उनसे शादी करने का समय आ गया है अल्लाह का शुक्र है कि मैं अब उनकी बीवी हूं। शादी के वक्त शरीफत बेल्लो की उम्र 25 वर्ष थी और अबूबकर और उनकी बीवियां कोई काम नहीं करती है। इतने बड़े परिवार के गुजारे के लिए प्रत्यक्षत उनके पास कोई साधन भी नहीं दिखता हर भोजन के समय उनके यहां 12-12 किलो के तीन बर्तन भर कर चावल इस्तेमाल होते हैं और हर दिन के खाने का खर्च 915 डॉलर या 457 पाउंड का खर्च आता है। वे यह बताने से इंकार करते हैं कि कैसे वे अपने परिवार के लिए खाने और पहनने की व्यवस्था करते हैं। वे कहते है सब अल्लाह का फजल है उनकी एक बीवी का कहना है कि अबूबकर कभी-कभी अपने बच्चों को भीख मांग कर लाने के लिए कहते हैं।
अबूबकर अपने परिवार के सदस्यों और अन्य श्रद्धालुओं को दवा का सेवन नहीं करने देते हैं वे कहते हैं आप मेरे साथ बठते हैं और यदि आपको कोई बीमारी है तो मुझे इसका पता चल जाता है और मैं इसे दूर कर देता हूं। लेकिन सभी लोगों का रोग दूर नहीं होता उनकी एक बीवी हफसत बेल्लो मोहम्मद कहती हैं कि उनके दो बच्चों की मौत हो गई थी लेकिन साथ ही उनका यह भी कहना है कि अल्लाह ने कहा कि उन बच्चों के जाने का वक्त आ गया है।
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